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||श्री राम जी के प्रातः स्मरणीय मंत्र इन मंत्रों को प्रातः बोलने से सुख शांति होती हैै||
स्मरामि रघुनाथमुखारविन्दं
मन्दस्मितं मधुरभाषि विशालभालम्।
कर्णावलम्बिचलकुण्डलशोभिगण्डं
कर्णान्तदीर्घनयनं नयनाभिरामम्॥१॥
उस परमपुरुषके चरणारविन्दयुगलमें सिरझुकाकर मैं मन-वचनसे
प्रात:काल नमस्कार करता हूँ॥२॥ जिसने शंख-चक्र धारण करके ग्राहके
मुखमें पड़े हुए चरणवाले गजेन्द्रके घोर संकटका नाश किया, भक्तको
अभय करनेवाले उन भगवान्को मैं अपने पूर्वजन्मोंके सब पापोंका नाश
करनेके लिये प्रात:काल भजता हूँ॥३॥
प्रातर्भजामिरघुनाथकरारविन्दं
रक्षोगणाय भयदं वरदं निजेभ्यः।
यद्राजसंसदि विभज्य महेशचापं
सीताकरग्रहणमङ्गलमाप सद्यः॥ २॥
मैं प्रातःकाल श्रीरघुनाथजीके करकमलोंका स्मरण करता हूँ, जो
राक्षसोंको भय देनेवाले और भक्तोंके वरदायकहतथाजिन्होंनेराजसभामें
शंकरका धनुष तोड़कर शीघ्र ही सीताका मंगलमय पाणिग्रहण किया
प्रातर्नमामिरघुनाथपदारविन्दं
वज्राकुशादिशुभरेखि सुखावह मे।
योगीन्द्रमानसमधुव्रतसेव्यमानं
शापापहं सपदि गौतमधर्मपल्याः॥३॥
मैं प्रात:काल श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंको नमस्कार करता हूँ,
जो वज़, अंकुश आदि शुभ रेखाओंसे युक्त, मेरे लिये सुखदायी,
योगियोंके मन-मधुपद्वारा सेवित और गौतमपत्नी अहल्याके शापको दूर
करनेवाले हैं॥२॥
प्रातर्वदामि वचसा रघुनाथनाम
वाग्दोषहारि सकलं शमलं निहन्ति ।
यत्पार्वती स्वपतिना सह भोक्तुकामा
प्रीत्या सहस्त्रहरिनामसमं जजाप॥४॥
वाणीके दोषोंको नाश करनेवाला और सर्व
पापोंकोहरनेवालाहैतथाजिमीजीजीने अपने पति
(शंकर)के साथ भोजन
करनेकी इच्छासे भग सिनामके सदृश प्रीतिसहित जपा था॥४॥
प्रातः श्रये श्रुतिनुतां रघुनाथमूर्ति
नीलाम्बुजोत्पलसितेतररत्ननीलाम्
आमुक्तमौक्तिकविशेषविभूषणाढ्यां
ध्येयां समस्तमुनिभिर्जनमुक्तिहेतुम्॥५॥
मैं प्रात:काल श्रीरघुनाथजीकी वेदवन्दित मूर्तिका आश्रय लेता हूँ, जो
नीलकमल और नीलमणिके समान नीलवर्ण, लटकते हुए मोतियोंकी
मालासे विभूषित, समस्त मुनियोंकी ध्येय तथा भक्तोंको मोक्ष प्रदान
यः श्लोकपञ्चकमिदं प्रयतः पठेद्धि
नित्यं प्रभातसमये पुरुषः प्रबुद्धः।
श्रीरामकिङ्करजनेषु स एव मुख्यो
भूत्वा प्रयाति हरिलोकमनन्यलभ्यम्॥६॥
॥ इति श्रीरामस्य प्रातःस्मरणम् ॥
जो पुरुष प्रात:काल नींदसे जगकर जितेन्द्रियभावसे
इन पाँचों श्लोकोंका नित्य पाठ करता है,
वह श्रीरामजीके सेवकोंमें मुख्यहोकर श्रीहरिके लोकको,
जो दूसरों के लिये दुर्लभ है, प्राप्त होता है ॥ ६॥
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