shiv mahimna stotra Hindi|shiv mahimna stotra lyrics in Sanskrit|[Hindi/PDF] mahimna stotra 2021|

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शिव महिम्न स्त्रोत शिव भगवान का ऐसा चमत्कारी के स्त्रोत्र है जो सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति करता है 

यदि किसी के व्यापार में कमी आ रही हो उन्नति नहीं हो पा रही हो तो इस स्त्रोत का पाठ अवश्य करें भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे अद्भुत तरीका है


 कि उनकी स्तुति करना अर्थात उनकी महिमा ओं का वर्णन करना शिव महिम्न स्त्रोत को प्रमुख स्त्रोत्र माना जाता है और शिव महिम्न स्तोत्र को संपूर्ण माना जाता है

 क्योंकि शिव भगवान की ऐसी कोई सी लीला नहीं जिसका वर्णन शिव महिम्न स्त्रोत में नहीं है.

अगर आप भी अपने व्यापार में प्रति चाहते हैं अगर आप भी अपनी उन्नति चाहते हैं

 तो आप शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ अवश्य करें और शिव महिम्न स्त्रोत से जुड़ी कथा तथा शिव महिम्न स्त्रोत के बारे में कुछ अनोखे तथ्य जाने के लिए इसे पूरा पढ़ें.


         shiv mahimna stotra(shiv mahimna stotra lyrics in Sanskrit)

 
      
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              -:शिव महिम्न स्तोत्र:-

        शिव महिम्न स्तोत्र हिंदी और संस्कृत

     
     महिम्न: पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी 

स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिर: ।


अथावाच्य: सर्व: स्वमतिपरिणामावधि गृणन्


ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवाद: परिकर: ।।1।।


  हे हर हे शिव भगवान आप प्राणी मात्र के कष्टों को हरने वाले हैं मैं इस स्त्रोत्र के माध्यम से आप की वंदना कर रहा हूं मैं आप की अपार महिमा की वंदना करने के उचित ना भी हो परंतु है महादेव आपके स्वरूप का वर्णन स्वयं और बड़े बड़े ज्ञानी पुरुष भी करने में सक्षम नहीं है मैं अपनी यथाशक्ति के अनुसार आपकी वंदना कर रहा हूं


अतीत: पन्थानं तव च महिमा वाड्मनसयो – 


रतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।


स कस्य स्तोतव्य: कतिविधगुण: कस्य विषय:


पदे त्वर्वाचीने पतति न मन: कस्य न वच: ।।2।।

  

आपकी की महिमा करना वाणी और मन के परे है आप के संदर्भ में वेद भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं और नेति नेति कहते हैं और आपके इस स्वरूप का वर्णन भला कौन कर सकता है आप आदि और अनंत है ऐसे स्वरूप कि मैं वंदना करता हूं


मधुस्फीता वाच: परमममृतं निर्मितवत –


स्तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।


मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवत: 


पुनामीत्यर्थेsस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ।।3।।


  आप ब्रह्म के स्वरूप हैं आप मधुर वाणी के निर्माता है मैं अपनी सीमित क्षमताओं द्वारा आपके इस स्त्रोत्र का गुणगान कर रहा हूं इससे मेरी वाणी शुद्ध होगी तथा मेरी बुद्धि का विकास होगा


तवैश्चर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्


त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।


अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं 


विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधिय: ।।4।।


   हे शिव हे हरि आप इस संसार के रचयिता हैं तथा आप इस संसार के सृजन करता रचयिता और पालनकर्ता भी हैं तीनों वेद आप की महिमा का गुणगान करते हैं तथा आप तीनों गुणों को प्रकाशित करने वाले हैं अभी कुछ मूड प्राणी आप का उपहास करते हैं यह सर्वदा अनुचित होता है


किमीह: किंकाय स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं 


किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।


अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदु:स्तो हतधिय: 


कुतर्कोsयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगत: ।।5।।


  हे शिव शंकर हे महादेव जो मूर्ख प्राणी आपके बारे में कुतर्क करते हैं और सदा भ्रमित रहत है और आपके इस अस्तित्व को चुनौती देते हैं वे सदा भ्रमित ही रहते हैं वेदों ने भी स्पष्ट किया है कि जो व्यक्ति आपकी सदा कुतर्क करता है वह आपके बारे में जान नहीं सकता है


अजन्मानो लोका: किमवयववन्तोsपि जगता – 


मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति ।


अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने क: परिकरो 


यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ।।6।।


  हे शिव हे परमपिता आप इस सृष्टि के पालन करता है और इस सृष्टि में 7 सात लोक और इन 7 लोक के पालन करता आप ही हैं अर्थात मेरे कहने का आशय यह है कि आपकी बिना कृपा के इस संसार का सृजन कैसे संभव हो सकता है



त्रयी सांख्यं योग: पशुपतिमतं वैष्णवमिति 


प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमद: पथ्यमिति च ।


रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां 


नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।7।।


    वेद संख्या शास्त्र योग शास्त्र तथा तथा अन्य शास्त्रों के ज्ञाता भी आप ही हैं अर्थात जो व्यक्ति विभिन्न तरीकों से तथा विभिन्न प्रकार के ज्ञान के ज्ञाता होते हैं वह आप में ही समाहित हो जाते हैं जिस प्रकार सभी नदियां सागर में समाहित हो जाती हैं उसी प्रकार सभी विद्वानों का मार्ग आप तक पहुंचता है

 


महोक्ष: खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिन: 


कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।


सुरास्तां तामृधिं दधति च भवद्भ्रूप्रणिहितां 


न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।।8।।

 

 
 हे शिव हे परमपिता परमात्मा फरसा सर्प इत्यादि आपके व्यवहार उपयोगी साधन है अतः आप की एक इशारे मात्र से सभी देवगढ़ ऐश्वर्या को पाते हैं यदि कोई आप पर संकोच करता है कि आप असीम ऐश्वर्य के स्रोत है और यदि कोई यह कहे कि आप इतने सुख के दाता हैं तो आप इन सभी सुख का भोग क्यों नहीं करते हैं इसका उत्तर यही है कि आप इच्छा रहित हैं तथा स्वयं में ही मग्न रहते हैं


ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं 


परो ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।


समस्ते sप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव 


स्तुवंजिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ।।9।।


 हे शिव आप त्रिपुरासुर का विनाश करने वाले हैं कोई इस संपूर्ण जगत को नित्य बताता है तो कोई इस जगत को अनित्य बताता है अब कोई अनित्य और अनित्य दोनों प्रकार का मानता है इन विभिन्न प्रकार के मतों के कारण मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है परंतु आपकी भक्ति से मेरी बुद्धि दृढ़ होती जा रही है

 


तवैश्चर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिंचो हरिरध: 


परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुष: ।


ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्


स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ।।10।।


 

 एक समय ऐसा था कि आपकी भक्ति की जानकारी के लिए ब्रह्मा विष्णु अनेक दिशाओं में गए उनके सारे प्रयास विफल हो गए जब उन्होंने मन से आपकी भक्ति के मार्ग को अपनाया तभी वह आपको जान पाए क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती हैं


अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं 


दशास्यो यद् बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान् ।


शिर:पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबले: 


स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ।।11।।


  हे शिव हे त्रिपुरा संहारक रावण इस विश्व को शत्रुओं से कैसे विहीन कर सका तथा रावण आप की भक्ति में लीन होकर के अपने सर को काट कर के आप के चरणों में अर्पित किया अर्थात यह सब आपकी निश्चल भक्ति का प्रभाव है
 


अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं 


बलात् कैलासेsपि त्वदधिवसतौ विक्रमयत: ।


अलभ्या पातालेsप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि 


प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खल: ।।12।।


 

  हे शिव हे परमपिता आपके द्वारा दी जाने वाली शक्ति के कारण रावण अहंकार के कारण मद में चूर होकर आपके कैलाश पर्वत को उठाने की भूल कर बैठा हे महादेव आपने उसे अपने पांव के अंगूठे से दबा दिया रावण कष्ट से पीड़ित होने लगा और रुदन कर बैठा अंत में वह आपकी शरणागति के द्वारा ही मुक्त हो सका



यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती – 


मधश्चक्रे बाण: परिजनविधेयत्रिभुवन: ।


न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयो – 


र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनति: ।।13।।


 

   हे शिव आप की भक्ति अत्यंत ही लाभदायक है अतः आप की भक्ति करके बाणासुर नाम का राक्षस भी अधिक शक्तिशाली हो गया और उसने तीनों लोगों पर राज किया हे शिव हे परमपिता आपकी भक्ति से सब कुछ संभव है


अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा – 


विधेयस्यासीद्यस्त्रिनयनविषं संहृतवत: ।


स कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो 


विकारोsपि श्लाघ्यो भुवनभयभंगव्यसनिन: ।।14।।


 

  जब अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं और असुरों ने समुंद्र मंथन किया समुंद्र मंथन के समय कई अमूल्य चीजें प्राप्त हुई वे देवताओं और असुरों ने आपस में बांट ली परंतु जब मंथन के समय भयावह विष निकला था जिससे पृथ्वी का विनाश संभव था तो आपने पृथ्वी की रक्षा हेतु उस विश् को पिया जिसके कारण आपका कंठ नीला पड़ गया तथा जब से आपका नाम नीलकंठ पड़ गया


असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे 


निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा: ।


स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्


स्मर: स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्य: परिभव: ।।15।।


 

 हे प्रभु हे शिव कामदेव के बारे में कौन नहीं जानता कि उसकी बार से कोई भी मनुष्य हो देव हो जानम हो कोई भी नहीं बच सकता था तथा कामदेव ने आपकी शक्ति बिना जाने ही आपकी और निशाना साधा तो वह तत्काल ही मृत्यु को प्राप्त हो गया निश्चित है कि जीत इंद्रियों का अपमान कल्याणकारी नहीं होता है


मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं 


पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।


मुहुर्द्यौर्दौ:स्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा 


जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ।।16।।


   हे शिव हे परमपिता परमात्मा जब आपने संसार के कल्याण के लिए तांडव किया तो आपके पांव से यह धरा कंपन करने लगी आपके हाथों की परिधि के द्वारा ग्रह कंपन करने लगे तथा विष्णु लोक भी हिल गया तथा आप की जटाओं द्वारा स्वर्ग लोक भी व्याकुल हो गया हे महादेव आपकी इस कल्याणकारी कार्य से सभी जी से डरने लगे
  


वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोद्ग्मरुचि: 


प्रवाहो वारां य: पृषतलघुदृष्ट: शिरसि ते ।


जगद् द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि – 


त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपु: ।।17।।



 हे परमेश्वर पूरे आकाश में व्याप्त तारागण के बीच से गुजरती हुई गंगाजल अपनी धारा से धरती पर एक टापू बना लेती है तथा अपने बैग से एक चक्रवात उत्पन्न करती है उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद की भांति दृष्टिगोचर होती है यह आपके दिव्य स्वरूप की महिमा का वर्णन करती
 


रथ: क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो 


रथांगे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणि: शर इति ।


दिधक्षोस्ते कोsयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधि – 


र्विधेयै: क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्रा: प्रभुधिय: ।।18।।


  हे शिव हे परमपिता अपने त्रिपुरासुर के बाद के लिए पृथ्वी रथ और ब्रह्मा को सारथी बनाया और सूर्य और चंद्र को पहिया बनाया और इंद्र को बाण बनाया हे शंभू इतने बड़े प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी आपके लिए तो संसार को नष्ट करना एक छोटी सी बात है आपको किसी की सहायता की आवश्यकता क्यों पड़ी

 


हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयो – 


र्यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।


गतो भक्त्युद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा 


त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ।।19।।


  ए शिव शंकर विष्णु भगवान ने आपके चरण कमलों में 1000 पुष्पों चढ़ाने का नियम बनाया था एक दिन एक हजार पुस्तकों में से एक पुष्प कम हो जाने पर विष्णु भगवान ने अपनी एक आंख को कमल के रूप में आपके चरणों में अर्पित कर दिया उनकी इसी भक्ति ने सुदर्शन चक्र का रूप धारण कर लिया इस सुदर्शन चक्र का प्रयोग विष्णु भगवान संसार की रक्षार्थ करते हैं



क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां 


क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।


अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं 


श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकर: कर्मसु जन: ।।20।।


   हे देवा देव महादेव आपने इस जगत में कर्म तथा फल का विधान बनाया है आपने इस संसार में अच्छे कर्मों तथा बुरे कर्मों का विधान बनाया है अप के वचनों में ध्यान लगाकर ही सभी वेदों ने कर्म आस्था को बनाए रखा है



क्रियादक्षो दक्ष: क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता – 


मृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्या: सुरगणा: ।


क्रतुभ्रेषस्त्वत्त: क्रतुफलविधानव्यसनिनो 


ध्रुवं कर्तु: श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखा: ।।21।।


 

हे शिव हे हरि आपने यज्ञ और कर्म का विधान बनाया है अर्थात जो व्यक्ति यज्ञ और कर्म शुद्ध विचारों से नहीं करता है और आप की अवहेलना करता है उसका परिणाम कदाचित विपरीत होता है अर्थात वह हितकारी सिद्ध नहीं होता है दक्ष प्रजापति के महायज्ञ से भला कौन सा उदाहरण उपयुक्त हो सकता है जब दक्ष प्रजापति का यज्ञ हुआ था तो ब्रह्मा पुरोहित अनेक देवगढ़ ऋषि मुनि सम्मिलित हुए परंतु हे परमपिता परमात्मा शिव आपकी हवेलना के कारण उस यज्ञ का नाश हो गया अर्थात आप अनीति को सहन नहीं कर सकते चाहे वह शुभ कर्म के संदर्भ में क्यों ना हो


प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं 


गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।


धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं 


त्रसन्तं तेsद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभस: ।।22।।


 समय जब ब्रह्मा अपनी कृति पर मोहित होकर और उनकी कृति ने हिरनी का रूप धारण करके भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा ने हिरण का रूप धारण करके उसका पीछा करना चाहा हे शिव तब आपने अपने वार्ड द्वारा उसकी और निशाना लगाया तो आप के रौद्र रूप को देखकर के ब्रह्मा भी भयभीत हो गए और आकाश की ओर भाग गए वह ब्रह्मा आज भी आपके रूद्र रूप से भयभीत रहते हैं


स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत्


पुर: प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।


यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटना – 


दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतय: ।।23।।


 


 हे शिव हे परमपिता परमात्मा आपने पार्वती माता को अपने सहधर्मिणी बनाया तो उन्हें आपकी यूपी होने से शंका उत्पन्न होने लगी यह शंका निर्मूल थी क्योंकि हे शिव जब आप पर कामदेव ने अपना अधिकार जमाने का सोचा तो आपने काम को जलाकर के नष्ट कर दिया



श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचा: सहचरा – 


श्चिताभस्मलेप: स्त्रगपि नृकरोटीपरिकर: ।


अमंगलल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं 


तथापि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि ।।24।।


 हे शिव शंकर हे भोलेनाथ आप श्मशान में रमण करते हो और चिता भस्म का लेप करते हो अर्थात यह सभी गुण अशुभ प्रतीत होते हैं परंतु हे शिव शंकर करुणानिधान आपका यह स्वरूप आप के भक्तों के लिए लाभकारी सिद्ध होता है क्योंकि यह सब आप अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण करते हो


मन: प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुत: 


प्रहृष्यद्रोमाण: प्रमदसलिलोत्संगितदृश: ।


यदालोक्याह्लादं हृद इव निमज्यामृतमये 


दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ।।25।।



हे शिव हे परमपिता परमात्मा हे योगराज मनुष्य विभिन्न विभिन्न प्रकार से योग की साधना करते हैं जैसा कि सांस पर ध्यान लगाना उपवास इत्यादि क्रिया करना योग क्रियाओं द्वारा वह जिस आनंद को महसूस करते हैं वह वास्तव में आप ही हो अर्थात हे महादेव में साक्षात आपका ही दर्शन करते हैं

 


त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह – 


स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।


परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं 


न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ।।26।।



हे शिव हे भोलेनाथ आप ही सूर्य चंद्रमा पृथ्वी आकाश वायु और आप ही आत्मा है इस प्रकार आपके बारे में विद्वान लोगों ने एक सीमित वाणी को कहा लेकिन हम जगत में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं जानते जो आप ना हो अर्थात आप ही सभी चीजों में व्याप्त हैं


त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा – 


नकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति ।


तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभि: 


समस्तं व्यस्तं त्वं शरणद गृणात्योमिति पदम् ।।27।।


  हे शिव शंकर ॐ शब्द तीन शब्द से मिलकर बना है अ, ऊ, मं तथा तीनों वेदो और तीनों अवस्थाओं तीन लोक और तीन कालो का बोध कराता है अर्थात ओम का शब्द स्वयं आप ही हो


भव: शर्वो रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सहमहां – 


स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।


अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि 


प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योsस्मि भवते ।।28।।


 

हे शिव परमपिता परमात्मा बड़े बड़े ज्ञानी विद्वान तथा देवगढ़ आप ही के इन 8 नामों का गुणगान करते हैं अर्थात वंदना करते हैं  भव, सर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान मैं उस परम आनंद स्वरूप को मैं विधि पूर्वक प्रणाम करता हूं


नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो 


नम: क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नम: ।


नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो 


नम: सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नम: ।।29।।


 

   हे शिव हे भोले शंकर आप अत्यंत दूर है तथा अत्यंत पास है और आप महा विशाल तथा महान सूक्ष्म है आप सभी रूपों में सबसे श्रेष्ठ हैं तथा कनिष्ठ भी है आप ही सब कुछ है आप सभी कुछ से परे भी है


बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नम: 


प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नम: ।


जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नम: 


प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम: ।।30।।


    हे शंभू हे हरि आप इसे सृष्टि के निर्माता है और इस सृष्टि की उत्पत्ति के लिए रजोगुण की आवश्यकता होती है हे शिव आप रजोगुण ब्रह्म स्वरूप को मैं प्रणाम करता हूं हे शिव मैं आपको तमस गुणों से युक्त मानकर तथा विलय करता मानकर आपको मैं शत-शत नमन करता हूं हे शिव आप लोगों को सुख प्रदान करते हो आपके इस सतोगुण को मैं बारंबार प्रणाम करता हूं आप ही ब्रह्मा विष्णु महेश का रूप है मैं आपके इस अद्भुत स्वरूप का प्रणाम करता हूं


कृशपरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं 


क्व च तव गुणसीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धि: ।


इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्  


वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ।।31।।


    हे शिव जी परमपिता परमात्मा आपका जो विस्तार है वह नित्य ही बढ़ता चला जाता है मैं आपकी सीमित क्षमता में कैसे वंदना कर सकता हूं परंतु शिव भक्ति से यह सारी चीज मिट जाती ऐसे करुणा कारी शिव के चरणों की मैं वंदना करता हूं


असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे 


सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।


लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं 


तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ।।32।।


    हे शिव हे परमपिता यदि कोई समुंद्र को दवात तथा उसमें काला पर्वत स्याही बने तथा कल्पवृक्ष की मोटी शाखाएं कलम बने और पृथ्वी कागज बने तथा साक्षात मां सरस्वती इन सभी को लेकर के लिखने का कार्य करें और निरंतर लिखती रहें तो भी आप आप का गुणगान करना संभव नहीं है


असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौले – 


र्ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।


सकलगणवरिष्ठ: पुष्पदन्ताभिधानो 


रुचिरमलघुवृत्तै: स्तोत्रमेतच्चकार ।।33।।


    हे शिव शंभू आप बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा आप देवताओं तथा राक्षसों द्वारा पूजित और बड़े-बड़े मुनियों द्वारा पूजित है आप मस्तक पर चंद्रमा धारण किए हुए हैं आपके हाथ में त्रिशूल आप अत्यंत ही शुभकारी प्रतीत होती हैं इस स्तोत्र की रचना पुष्पदंत गंधर्व ने शिव जी के गुणगान के लिए की गई है


अहरहरनवद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत् 


पठति परमभक्त्या शुद्धचित्त: पुमान् य: ।


स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथात्र 


प्रचुरतरधनायु: पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ।।34।।


     हे शिव जो भी आपके इस स्तोत्र का पाठ सच्चे मन से करता है अर्थात परम भक्ति पूर्वक पड़ता है इस लोक में अत्यंत धन को प्राप्त करता है ओजस्वी तेजस्वी और सभी सुखों की प्राप्ति को प्राप्त होता है और अंततः शिव को प्राप्त होता है


महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति: ।


अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरो: परम् ।।35।।


   शिव से बढ़कर कोई देव नहीं और महिम्न से बढ़कर कोई स्तुति नहीं और ओम से बढ़कर कोई मंत्र नहीं और गुरु से बढ़कर कोई सत्य नहीं

 

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिका: क्रिया: ।


महिम्न: स्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।36।।


    दान ज्ञान यज्ञ और तीर्थ और दीक्षा लेना इस स्त्रोत्र के पाठ की शोले भी अंश के बराबर भी फल प्राप्त नहीं करते


कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: 


शिशुशशिधरमौलेर्देवदेवस्य दास: ।


स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् 


स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्न: ।।37।।


   हे शिव हे करुणानिधान आपका एक परम भक्त चंद्रमौलेश्वर था वह अपने अपराध के कारण अपने दिव्य रूप से वंचित हो गया फिर उसने अपने दिव्य स्वरूप की प्राप्ति के लिए इस स्त्रोत की रचना की और अपने दिव्य स्वरुप को प्राप्त किया अर्थात यह स्त्रोत्र अत्यंत ही लाभकारी है


सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं 


पठति यदि मनुष्य: प्रांजलिर्नान्यचेता: ।


व्रजति शिवसमीपं किन्नरै: स्तूयमान: 


स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणितम्  ।।38।।


    यह सब भगवान का बड़ा ही अद्भुत स्त्रोत्र है जो भी इस स्तोत्र का पाठ करता है वह शिवलोक को प्राप्त करता है और साथ ही शिवजी की महिमा को प्राप्त करता है


आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषितम् ।


अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम् ।।39।।


   शिवजी का अत्यंत प्रिय स्तोत्र है स्त्रोत्र के नियमित पाठ से परम सुख की प्राप्ति होती है अर्थात यह स्त्रोत्र दोष रहित है


इत्येषा वाड्मयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयो: ।


अर्पिता तेन देवेश: प्रीयतां मे सदाशिव: ।।40।।

 

यह स्त्रोत्रा शिव जी को समर्पित है


तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोsसि महेश्वर ।


यादृशोsसि महादेव तादृशाय नमो नम: ।।41।।


   हे शिव ने आप की वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता अर्थात आप मुझे क्षमा करें


एककालं द्विकालं वा त्रिकालं य: पठेन्नर: ।


सर्वपापविनिर्मुक्त: शिवलोके महीयते ।।42।।


   यह स्त्रोत बड़ा ही चमत्कारिक स्त्रोत्र है इस स्त्रोत्र का जो भी व्यक्ति एक दिन में एक बार या दो बार यह 3 बार पाठ करता है वह है पापों से मुक्त तो होता ही है परंतु है शिवलोक को प्राप्त हो जाता है


श्रीपुष्पदन्तमुखपंकजनिर्गतेन 


स्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण ।


कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन 


सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेश: ।।43।।


   स्त्रोत शिव जी को अत्यंत प्रिय है इस स्तोत्र की रचना पुष्पा दत्त ने की है और यह स्त्रोत्र मनुष्य के सभी पापों को दूर करता है


        
  

   
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Krishna Bhajan s

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